“परिवर्तन की आशा”

बदन कजला गया तो दिल की ताबानी से निकलूँगा मैं सूरज बन के इक दिन अपनी पेशानी से निकलूँगा..!

नज़र आ जाऊँगा मैं आँसुओं में जब भी रोओगे मुझे मिट्टी किया तुम ने तो मैं पानी से निकलूँगा…!!

तुम आँखों से मुझे जाँ के सफ़र की मत इजाज़त दो अगर उतरा लहू में फिर न आसानी से निकलूँगा…!!

मैं ऐसा खूबसूरत रंग हूँ दीवार का अपनी अगर निकला तो घर वालों की नादानी से निकलूँगा….!!

ज़मीर-ए-वक़्त में पैवस्त हूँ मैं फाँस की सूरत ज़माना क्या समझता है कि आसानी से निकलूँगा..!!

यही इक शय है जो तन्हा कभी होने नहीं देती ‘ज़फ़र’ मर जाऊँगा जिस दिन परेशानी से निकलूँगा….!!!

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